Tuesday, March 9, 2010
Monday, February 2, 2009
गोवा की सैर
जब मैं छोटा था तो बड़ी इच्छा होती थी की गोवा देखू । लोंगो से सुनता थाकी ये धरती पर स्वर्ग है , यंहा कई विच है , पुराने धरोहर भी हैं.........औरकई तरह की बातें । ये सब मेरे मन को व्याकुल कर देते , इच्छा होती की गोवाअभी का अभी घूम लूँ ; पर इच्छा तो आखिर इच्छा होती है -हकीकत नही बनसकी ।
अब मैं कॉलेज में हूँ -बिल्कुल फ्री , आजाद ! मेरे कॉलेज से गोवा थोड़े ही दूरपर है। कुछ दोस्तों के साथ मिलकर गोवा घुमने का प्लान बनाया । कॉलेज मेंगणतंत्र दिवस की छुटी थी , उससे पहले सन्डे था -मतलब दो दिनों का घुमनेका समय । माँ से अनुमति लेकर ८०० रूपये निकले और चल दी गोवा कीसैर पर ।
हमलोंगो की ट्रेन उडुपी से थी रात्रि के १.३० बजे। ट्रेन लगभग आधे घंटेविलंब से आई। हमलोग सभी जनरल का टिकेट लेकर स्लीपर डब्बे में चढ़ गए।डर तो लग रहा था पर दोस्तों के संग मस्ती में सब भूल गया था । पर आधेरास्ते के बाद टीटी आया और मेरे एक दोस्त से टिकेट मांगी । उसने जनरल का टिकेट दिखा दिया , टीटी उसपर गुस्सा होगया पर हमलोंगो ने टीटी को कुछ पैसे देने की बात की । टीटी काफी चालाक था उसने ८ लोंगो के १००० रुपये मांगे । मेरेएक दोस्त ने २०० रुपये देने की बात की । उसपर टीटी गुस्सा हो गया , बोला भीख दे रहा हैं-जा जनरल में जा के बैठ !
अगले स्टेशन पर हमलोगों ने पुरी १० डब्बे को पर करते हुए जनरल डब्बे के पंहुचा । दौड़ -दौड़ के हालत ख़राब हो गई थी। किसी तरह से डिब्बे में घुसा पर ये क्या ???? पुरी की पुरी कोच एकदम
फुल , खड़े होने का जगह भी नही था । उस डब्बे की हालत इतनी ख़राब थी की मेरे एक दोस्त को सामान रखने वाले रेक पर सोना पड़ा । रास्ते भर परेशान रहे क्योंकि हमलोग गेट पर खड़े थे - कभी किसी को बहार जाना होता तो कभी किसी को टॉयलेट. चलिए किसी तरह सुबह गोवा पहुच गए । जहाँ हमलोगों ने कदम रखा उस जगह का नाम था 'थिविम' ।.......................
स्टेशन तो छोटा था, पर सुन्दरता के मामले में बहुत बड़ा ! ट्रेन की पटरी तीखी मोड़ लेते हुए पहाड़ की बादियो से निकल कर सूरज की आगोश में जा रही थी। दृश्य काफी मनमोहक था। ऐसा प्रतीत हुआ की हम कुछ ही देर में स्वर्ग में प्रवेश कर जायेंगे । मन प्रसंचित हो गया,दिल खुशी से पागल । धीरे धीरे हमलोग स्टेशन से बाहर निकले । स्टेशन पहाड़ की उचाई पर स्तिथ था । निचे उतरा तो दोस्तों ने फोटोग्राफी शुरू कर दी । खूब मज़े में दुसरो के बाईक पर बैठ कर फोटो हुई । सूरज की किरणों को भी कैद किया गया। कुछ फोटो मैंने भी उतारे । पर फोटो खीचवाने में सबसे आगे शेखर और सुमीत जी थे। चलिए अब पहाड़ की उचाई से निचे उतरा जाय ।
स्टेशन से कुछ दूर पैदल चलने पर एक सड़क मिली। एक -दो दुकान भी था। थोडी देर रुकने के बाद एक बस आई। किसी से बिना पूछे बैठ गए बस में ......जँहा ले जाए! पर बस में कंडकटर ने बताया की हमलोग बघा विच जा सकते है । थोडी देर के बाद एक छोटा सा बस स्टैंड आया। वंहा से बाघा के लिए बस मिल गई। बस पर चढ़ गए सभी लोग ......मैं , शेखर, सौरव, सुमीत, अपूर्व, आकाश, अमोल, रघु, और प्रेमजीत (उसका आसली नाम प्रमित है, मुझे प्रेमजीत जयादा अच्छा लगता है) लगभग आधे घंटे के बाद हमलोग बाघा पहुच गए । बस से निचे उतरते ऐसा लगा कही कोई बहुत हलचल हो रही है, रौशनी भी तेज हो गई। हमलोग सड़क से बाई ओर बड़े । सामने नदी जैसी कोई चीज दिखी जिसके दुसरे छोर पर कुछ पत्थर पड़े थे , पर थोड़ा और आगे बड़े तो इसकी चौडाई एकदम से बढ़ गई . दुसरे छोर का कोई अ़ता पत्ता ही नही था.....हमलोग अरब सागर के सामने खड़े थे। समुद्र के उस पर अमेरिका महादेश देख सकते थे. आँखों के एकदम सामने था, पर नजर उतनी तेज नही थी। पर छोडिये दूसरा देश तो नही देख सके ,लेकिन दक्षिण की ओर आगे बढने पर परदेशी लोग जरूर दिखे।छोटे-छोटे कपडों में। हिन्दी में अगर तंग-वस्त्रों में कहू तो शायद समझने में थोडी तकलीफ होगी।पर 'ब्रा-बिकनी में थी' कहूँ तो ...आपके मन में वहा का नज़ारा पूर्ण रूप से सजीव हो रहा होगा। कुछ आराम कर रहे थे (अंग्रेजी में देखे तो सन बाथ जैसा laga) , कुछ घुटने भर पानी में तैरने की कोशिश तो कुछ लहरो पर चडने का प्रयत्न! पर सब लोग खुश नजर आ रहे थे । मैं भी खुश था। खुश भी क्यो न rahu पहली बार जो देख रहा था....लाइव !.....आगे जरी है।
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